Thursday 4 June 2015

सहिबाला होने के सुख

                          सहिबाला होने के सुख
यह बारातों का मौसम है .दिल्ली की बरातों में तो कुछ पता ही नहीं चल पाता की कौन आम है और कौन खास. पूर्वांचल की बारातों में आपकी महत्ता आपको दिए गए दायित्वों से तय होती है .बारात पक्ष में सबसे ज्यादा मार सहिबाला बनने को लेकर होती है ,दूल्हे की अगर एक से अधिक बहने व भाभियां तथा भांजे और भतीजे हैं तो यह तय करना बड़ा मुश्किल हो जाता है की इतना महान पद किसे दिया जाये .एक को मानाएं तो दूजा रूठ जाता है .जो भांजाया भतीजा सहिबाला नहीं बन पाता वह तो नाराज़ होता ही है साथ ही उनकी माएं यानी दुल्हे की बहने व भाभियां भी नाराज़ हो जाती हैं हों भी क्यूँ न सहिबाले जैसा मलाईदार पद फिर कहाँ मिलने वाला है .बारात में सहिबाला सबसे ज्यादा लाइम लाइट में रहने वाला प्राणी होता है उसपर सबकी निगाहें टिकी होती हैं .दुल्हा तो एक जगह फिक्स हो चूका होता है जबकि सहिबाले में अपार संभावनाएं छिपी होती हैं.दुल्हे से ज्यादा प्रोटोकाल सहिबाले के लिए फॉलो किये जाते हैं ,उसकी हर जरूरत का ध्यान रखा जाता है .हंसी- मजाक ,नैन -मटक्के सब सहिबाले साहब से ही वो नाराज़ न होने पाएं इस बात का पूरा ख्याल रखा जाता है.सहिबाले की हैसियत प्रधानमंत्री के प्रधान सचिव जैसी होती है ,दूल्हा तो बस औपचारिकतायें निभाता है महत्वपूर्ण निर्णय सहिबाला ही लेता है.या ऐसा उसे आभास कराया जाता है कि वह महत्वपूर्ण है .मगर इस पद के चयन की प्रक्रिया बहुत ही अलोकतांत्रिक है आम तौर पर सबसे बड़े बच्चे को यह पद सौंप दिया जाता है उनसे छोटे बस मन मसोस कर रह जाते हैं वह चाहते हुए भी विरोध नहीं कर पाते हैं. यह एक प्रथा है जो चलती आई है.बड़े के आगे छोटों की सारी योग्यताएं नजरंदाज कर दी जाती हैं वह भले ही अधिक योग्य और स्मार्ट क्यूँ न हों .हमारा सामूहिक धर्म है कि एकजुट होकर इस प्रक्रिया को और अधिक लोकतांत्रिक बनाने की मुहिम चलायें अन्यथा ऐसे ही उपेक्षित होते रहेंगे .सहिबालों के पद बढ़ा देने से इसका चार्म ख़त्म हो जाने का डर है .सहिबाला तो एक ही बनेगा लेकिन कौन बनेगा इसके निर्धारण पर गंभीर विचार की आवश्यकता है .आज तक मै कभी सहिबाला नहीं बन पाया और इस जीवन में इस सुख से वंचित रह गया आप न होने पाएं इसलिए अभी से तिकड़म भिडाने शुरू कर दीजिये.मैंने कुछ लोगों को देखा है जो ज़िन्दगी भर कभी सहिबाला नहीं बन पाते वो बारात में मिठाई का मालिक बनकर अपनी कुंठा मिटाते हैं और मिठाइयों की हेराफेरी से होने वाले लाभ से सहिबाला बनने के लाभ उठाना चाहते हैं .वे कई बार आम बारातियों और घरातियों को अपनी धौंस भी दिखाते हैं खासकर महिलाओं से वे और अधिक भाव खाते हैं वैसे ही जैसे कि सहिबाला सालियों से .मगर यहाँ वो बात कहाँ साहब जो वहां है .यहाँ आप उम्र के एक पड़ाव पर आ चुके होते हैं और लोग आपसे डरते हैं बल्कि  वहां जीवन की एक नयी शुरुवात होती है .वहां सब प्यार से आपके साथ होते हैं यहाँ सब डर और  स्वार्थ से आपके साथ होते हैं कि उन्हें औरों से अधिक मिठाई मिल जाए ,खाने के लिए तो मिले ही घर् ले जाने के लिए मिल जाए ,आम नहीं खास मिठाई मिल जाए.हालाँकि यह भी मलाईदार पद जरूर है मगर फुल क्रीम नहीं यह ऊपर से डाली गयी मलाई है.इस पद को प्राप्त करने के लिए आपको उन नेताओं से कई गुना अधिक म्हणत करनी पड़ेगी जो मंत्री पद प्राप्त करने के लिए दिन रात करते रहते हैं जैसे की दुल्हे के आगे पीछे घुमना ,उसकी तारीफों के पुल बांध देना झूठी ही सही.मेरा तो यहाँ तक मानना है की एक सहिबाला संघ भी होना चाहिए और सहिबाला पद कैसे प्राप्त करें इस पद की ट्रेनिंग दी जानी चाहिए.

Thursday 16 October 2014

अंधेरे का शोकगीत

१६ मई २०१४ के बाद भारत मे आए राजनीतिक भूचाल के बाद भारत मे ज़िंदगी के साथ ही साथ कविता भी अपने बदले रूप मे सामने आई है । यह देखना बहुत महत्वपूर्ण हो जाता है की     एक साहित्यकार राजनीति को कैसे देखता है और कितनी निर्भीकता के साथ सच्चाई को अपनी कविता कहानी उपन्यास मे व्यक्त कर पता है. ऐसे ही बीते शनिवार ११ अक्टूबर २०१४ को भारतीय प्रेस क्लब द्वारा १६ मई के बाद कविता के बदले स्वरूप को लेकर एक कविता गोष्ठी का आयोजन किया जिसमे कुल मिलाकर समकालीन कविता के १०  नामचीन कवियों ने अपनी कविताओं का पाठ किया। नवीन कुमार की कविता सारे मारे जाएंगे और बाज़ार मे बहुमत पूर्ण बहुमत के बाद लोकतंत्र मे उपजी बिडंबनाओं को व्यक्त करती नज़र आईं. अंजनी कुमार ने  गुम हो गये हैं लोकतंत्र मे पक्ष विपक्ष और कविता अर्थशास्त्र मे उलझ गयी है नहीं दिख रही है कोई अच्छी कविता, कविताएं पेश की उनकी ये कविताएं  अच्छे  दिनो के छलावे को उजागर करती नज़र आईं। गणेश रायबोले  की कविता गलत सपना १६ मई  के बाद भी चलने वाले १६ मई के सिलसिले को व्यक्त करती नज़र आई। उनकी पूंजीवाद के गंभीर जाल मे उलझते भारतीय लोकतंत्र मे पैसा कुछ नहीं है ज़िंदगी के खिलाफ साजिश है कविता संवेदना के तारों को झकझोर गई। अवनीश की कविता शोकगीत चीजें के बनाए अर्थ को स्वीकारने की मजबूरी उजागर करती दिखी। पाणिनी  आनंद की मुक्तक तुकबंदी से युक्त कविता नमामि गंगे बदलते चेहरों की असलियत को बड़े ही सरल लहजे मे उजागर करती नजर आईं और लगा रहे हैं गाँधी को भोग गोडसे के लोग सपाट बयानी की मिसाल पेश कर गयी। प्रधामंत्री के अमेरिका दौरे मे उमड़ी भीड़ मे तमाम भारतवंशियों मे अचानक उपजे भारत प्रेम को उनकी कविता माई फ्रेंड्स इन अमरीका सवाले को घेरे मे डाल गयी। निखिल आनद गिरि ने अपनी कविता हैंग ओवर मे अच्छे  दिनो को एक महामारी के रूप मे पेश किया और कविता उनका महान होना तय था थोपी गयी महानता के सच को उज़ागर कर गयी। अभिषेक श्रीवास्तव ने हाल ही मे दिल्ली के एक चिड़िया घर मे शेर के दडबे मे घुसे आदमी को मार डालने की घटना के बाद मे उस शेर के बचाव मे तमाम तर्क गढ़े जाने को हाल की राजनीतिक परिस्थियों से जोड़ते हुये कुछ यूं पेश किया की एक शेर के बचाव मे आदमी कितने तर्क गढ़ सकता है शेर शेर होता है आदमी आदमी .हाल ही प्रकाशित चर्चित काव्य संग्रह पुतले पर गुस्सा के रचयिता वरिष्ठ  कवि मिथिलेश श्रीवास्तव ने बड़ी ही गंभीर और संवेदनशील तरीके से पुतले पर गुस्सा कविता के मध्यम से यह सवाल उठा गए की क्या सच मे  हर साल पुतले मे जला दिया जाने वाला रावण मर जाता है या की वो खुद हम पर ही हंसता है हमारे ही बीच अपने कई रूपों  मे मौज़ूद होकर। वे लोग जिन्हे की एक ऐसे आदमी की तलाश है जो की कमल को राष्ट्रीय फूल नहीं मानता है और ऐसे आदमी की खोज मे वो लोग अंधेरे की भी परवाह नहीं कर रहे मिथिलेश श्रीवास्तव की कविता मे व्यक्त ये सच्चाई एक ऐसे तानाशाही समाज की का अक्स खींच गयी जहां तानाशाह के विरोध का अंज़ाम मौत है और ऐसी राजनीतिक सपाट बयानी रघुवीर सहाय की कविताओं को एक कदम और आगे  बढ़ाती नज़र आई। रंजीत वर्मा अच्छे  दिनो की धोखाधड़ी से महफूज़ जगहों की खोज मे नज़र आए क्यूंकि ऐसे ही लोकतंत्र को बचाया जा सकेगा। गोष्ठी के अध्यक्ष वरिष्ठ कवि  मंगलेश डबराल ने इस काव्य गोष्ठी मे किये गये कविता पाठ को अंधेरे का शोकगीत नाम दिया। और ऐसे तानाशाह की छवि को पेश किया जो बार यह भरोसा दिलाने की कोशिश करता है की वह मनुष्य है। चौंधियाते यथार्थ के अंधेरों के बीच सोने से पहले एक गिलास पानी पीना और उसके बचे रहने की गुज़ारिश उस सच को उकेर गयी जहां १६ माई के बाद इंसान आसमान नदी जल झरने पशु पंक्षी सबके अर्थ बदल गये हैं. कुल मिलकर यह कविता पाठ अपने किस्म मे अनोखा और एतिहासिक रहा जहां सिर्फ १६ मय की बाद की परिस्थियों पर लिखी गयी कविताएं ही शामिल थी। गोष्ठी   के संचालक ने बताया की ऐसे कविता  पाठ को देश के कयी महत्वपूर्ण स्थानों पर करने की योजना है। 
    प्रभांशु ओझा 
    दिल्ली विश्वविद्यालय 


Monday 13 October 2014

खिड़कियों से

किशोरे कुमार की आवाज़ मे फिल्म पड़ोसन का गाना की मेरे सामने वाली खिड़की मे एक चांद तुकड़ा रहता है तो हम सब को याद होगा ही जब चांद के दीदार की  एक अदद आश मे आशिकों ने ज़िंदगी भर इंतज़ार किया है ऐसे हज़ारों किस्से हैं मगर अब तो हालत बदल गये हैं   रहता रहा होगा किसी जमाने मे सामने वाली खिड़की मे चांद का टुकड़ा आज हमारे घरों से तो खिड़कियां गायब हुई ही हमारे ज़िंदगी से भी गायब हो चलीं.  , दुनिया के खुलेपन को बंद कमरों की कैद मे ही पा लेने की चाहत ने हमारे अंदर के धडकते दिल को मार डाला है जहां हम सिर्फ और सिर्फ अपने मै मे सिमटते जा रहे हैं । पता नहीं सामने वाली दमघोटू चारदीवारी के अंधेरों मे कौन रहता है. उस कभी ना खुलने वाले खिड़की के अंदर पता नहीं कितने प्यार पनपने से पहले ही मर जाते हैं और हम हैं की कंक्रीट की ये जेलें जिसे महल समझने की भूल कर बैठते हैं बनाने से बाज नहीं आते. सर पर एक छत बनाने की चाह मे इंसान घर पर घर लड़ता गया और छतों को खत्म करने के साथ ही उस छत से दिखाने वाली दुनिया के बाहरी जुड़ाव को भी खत्म कर लिया . प्यार चाहे छत का हो अथवा खिड़की का जिसके बारे मे हमारे भारतीय समाज मे तो अनगिनत कहानिया हैं कभी सफल तो कभी असफल पर ये जरूर था की एक दिल था जो दो दीवारों को बीच इस खिड़की और छत के मध्यम से धड़कता था पर पत्त्थरों की इन गगनचुंबी इमारतों ने हमारा अंदर के इंसान को मार डाला इमारतें जितनी उंची हुई हमारा कद उतना ही बौना होता चला गया।  समावेशी  विकास की प्रक्रिया मे पर्यावरण और विकास के बीच संतुलन की बहस दिन प्रतिदिन तेज होती जा रही है . अब हरित पर्यावरण की रक्षा के लिये हरित अर्थव्यवस्था ,हरित न्यायालय ,हरित राजनीति जैसे मुद्दों के साथ ही एक ऐसी जीवन शैली को बढ़ावा दिये जाने की बात की जा रही है जो पर्यावरण मैत्री हो हमारे जीने का नितांत भौतिकतावादी तरीका एक दिन सब कुछ तहस नहस ना कर दे इसलिये  ईको फ्रैंडली जिंदगी को अपनाने के लिये लोगों को जागरूक किया जा रहा है हमारे शहरों मे आये दिन भवन गिरने से होने वाली मौतों ,भवनों का भूकंपरोधी ना होना ,तथा ज्यादातर भवन ऐसे ही हैं जहां पर की दिन और रात का पता ही नहीं चलता है। बहुत ही कम घरों मे खिड़कियां देखने को मिलती हैं। हम नदियों और पहाड़ों की छाती चीरकर अगर ऐसे ही बड़े बड़े भवन बनाते रहे तो एक दिन सब कुछ नष्ट हो जाएगा सूरज की पहली और आखिरी किरण से कटी दडबों मे कटती हमारी ज़िंदगी इतनी दमघोंटू हो गयी है की हम हवा के लिये प्लास्टिक के पंखों पर और रोशनी के लिये बिजली की बल्बों पर निर्भर होते जा रहे हैं। आखिर इन सब की भी तो एक सीमा है आखिर कृतिम हवा लेकर हम कब तक ज़िंदगी की सांस ले पायेंगे और बल्बों की रोशनी हमारे ज़िंदगी के अंधेरे कब तक दूर करेगी। हमारे एतिहासिक काल मे हड़प्पा और मोहनजोदड़ो के समय भवन निर्माण कला प्रकृति के बेहद करीब थी परंतु सभ्यता के विकास क्रम मे आधुनिक विज्ञान और तकनीकी से लैश होकर भी हम उनसे हज़ारों साल पीछे हो गये हैं तथा छद्म भौतिकतावाद और पूंजीवाद द्वारा बिछाये जाल मे ऐसे फंसे हैं की हालत यह हो गये हैं की आयेज कुंवा और पीछे खाई और एक ऐसे बाज़ार मे खड़े हो गये हैं जहां हमने प्राकृतिक संसाधनों के साथ ही खुद को भी बेच डाला है। ये गगनचुंबी इमारतें प्रलय की आंधी मे चकनाचूर हो जाएं इससे पहले हमे सचेत हो जाने की आवश्यकता है समय की मांग है की गांव मे मिट्टी के कच्चे मकानो को डहा कर बनाई गयी आग उगलने वाली इंट की दीवारों  और शहर मे कंक्रीट के बड़े महलों की निर्माण प्रक्रिया को पर्यावरण मैत्री बनाया जाये और हम ऐसे हरित भवनों का निर्माण करें जो की हमारे आंतरिक और बाह्य दोनो स्वास्थ्य को संतुलित करें क्यूं रोटी कपड़ा की तरह मकान भी हमारी ज़िंदगी को प्रभावित करता है और प्रदूषित मकान हमारी मानसिकता को भी प्रभावित करता है। हम अगर मकान ना रहे तो ज़िंदा रह सकते हैं जैसा की इतिहास भी रहा लेकिन अगर पर्यावरण को दांव पर लगाकर आशियाने बनाये तो इंसान के अस्तित्व की कल्पना भी अकल्पनीय लगती है।दीवार की खिड़कियां मीट जाएं इससे पहले हमारे जीवन को गतिमान बनाये रखने के लिये जरूरी है की मिल जुल कर इसे बचाया जाये। घर भले ही छोटा हो लेकिन छत और खिड़की का अस्तित्व कायम रहे।  अंततः दुष्यंत कुमार का यह शेर"इस शहर मे वो कोई बारात हो या वारदात / अब किसी भी बात पर खुलती नहीं हैं खिड़कियाँ. 

Sunday 6 July 2014

स्थायी पते की तलाश

       स्थायी पते की तलाश
समकालीन कवि मिथिलेस श्रीवास्तव की कविता ‘‘हममे से हर एक का एक स्थायी पता है’’ पढ़ने के बाद बरबस यह बात सोचने को मजबूर हो गया की हम मे से हर एक का पता क्या स्थायी पता है या की कुछ दिनो बाद उस पते पर कोई और आ जाएगा । हम सब के मन मे एक स्थायी घर का पता होता है ,कुछ लोग एक बार घर छोड़ने के बाद शायद दुबारा फिर कभी वापस नहीं जाते हैं वो ज़िंदगी भर अपने घर या गाँव के रूप मे वही घर बताते हैं लेकिन अपने ज़िंदगी की आखिरी सांस एक किराए के कमरे मे लेते हैं और बिजली की शवगृहों मे जला दिये जाते हैं , उनके बल बच्चे बची हुई जमीन जायदाद के लिए उस स्थायी पते की खोज मे भटकते फिरते हैं और कुछ दिन बाद अपने ही घर मे अजनबियों की सी ज़िंदगी काटने के बाद फिर अस्थायी कहे जाने वाले उसी स्थायी घर मे वापस आ जाते हैं । वहाँ पर ऐसे लोगों के गली मुहल्ले हैं जिनके पते अस्थायी ही हैं इसमे हर वर्ग के लोग हैं उच्च अधिकारी से लेकर चपरासी और मजदूर तक हैं । पडोसे के सरकारी क्वाटर मे रहने वाले डॉक के वे बाबूजी तो भुलाए नहीं भूलते जिन्होने अपनी ज़िंदगी के ४० साल एक ही कमरे मे काट दिये और फिर रिटायर होने के बाद वो कमरा छोड़ने का फरमान आ गया , मुझे याद है मैंने उन्हे उस कमरे की दीवारों से लिपट के चिल्ला चिल्ला कर  पहली बार रोते हुये देखा था , हम सब ने उन्हे बहुत समझाया बगल के कमरों के लोग यही कहते रहे की ये आपका ही कमरा रहेगा आप आते रहिएगा बाउजी बेमन से किसी और पते की तलाश मे चले गए क्यूंकी बल बच्चे विदेश रहते थे और मैंने अपनी समझ के बरसों मे उन्हे कभी अपने बच्चो से मिलते नहीं देखा था। कुछ दिनो तक उनके नाम से उसी पते पर चिट्ठियाँ आयीं ,कुछ मिलने वाले लोग भी आए और फिर बात आई गयी हो गयी कमरे मे कोई और आ गए फिर से जाने के लिए। 
मिथिलेश जी ने संवेदना के तारों को झकझोरते हुए उस जगह का जिक्र किया है जहां से हम उजड़े थे ,दरअसल वही हमारा स्थायी पता है । पुलिस अपने वर्तमान पते पर रहने वाले लोगों से उनके स्थायी पते पूछती है और जिसका कोई स्थायी पता नहीं है वह उन्हे शक की नजरों से देखती है। पुलिस कभी भी यह बात मान ही नहीं सकती है की अमुक व्यक्ति का वर्तमान पता ही उसका स्थायी पता है । जिनका वर्तमान पते के अलावा  कोई स्थायी पता नहीं है पुलिसे उन्हे संदिग्ध मानती है।  हम अपने वर्तमान के घरों को कितने प्यार से सजाते हैं सँवारते हैं और एक दिन मकान मालिक जिसको की यह दंभ है की सारी दुनिया उसी की किराएदार है आकार हमसे कमरा खाली करवा लेता है और हम बेबस लाचार फिर किसी पते की तलाश मे निकाल पड़ते हैं । स्थायी पते की तलाश शायद उम्र भर चलती रहती है और एक दिन किसी पते पर हम आखिरी साँसे लेकर एक अज्ञात पते की तरफ विदा हो जाते हैं । 
 ऐसा भी नहीं है की यह समस्या सिर्फ गरीब या की माध्यम वर्ग के लोगों के साथ है बड़े बड़े निवर्तमान  मंत्री जब अपने बंगले खाली करने मे आनाकानी करते हैं तब उनका भी दर्द समझ आता है और उसका भी दर्द जो अभी हाल मे ही मंत्री बना है और जल्दी से ही अपने नए पते पर बस जाना चाहता है । 
आखिर जो केजरीवाल एक दिन दिल्ली के मुख्यमंत्री थे  आज उन्हे एक अदद घर की तलाश मे दर दर भटकना पड  रहा है । कभी विपक्षी पार्टियां टांग  अड़ा  देती हैं तो कभी कोर्ट ,तो कभी कभी खुद मकान मालिक ही। मुझे तो राजधानी दिल्ली मे  छेत्रवाद की पूरी की पूरी राजनीति ही कभी कभी बौनी नजर आने लगती है क्यूंकी यह दिल्ली सबकी भी है और किसी की भी नहीं है । कोई बहुत बरस पहले सुदूर उत्तर प्रदेश और बिहार से आया था तो कोई हरियाणा के गांवो से ,राजधानी बनने के बाद सम्पूर्ण भारत से दिल्ली की तरफ पलायन बढ़ा और दिल्ली मे देखते ही देखते पूरा भारतवर्ष ही बस गया। विभाजन के बाद जिन लोगों को सरकार ने दिल्ली मे जमीने आवंटित की और आज उनके अपने घर हैं वे भी खुद को कभी दिल्ली वाला नहीं मानते हैं उनके पूर्वज उनका गाँव सब पाकिस्तान मे हैं । बहुत कम ही लोग उनमे से कभी पाकिस्तान और फिर वहाँ अपने गाँव जा पाते  होंगे फिर भी उनके अवचेतन मन मे उनका स्थायी पता वही है । खुद को शुद्ध दिल्ली वाला कहने वाले लोग जब शादी व्याह करते हैं तो उसी राज्य  को ज्यादा तवज्जो देते हैं जहां उनके पूर्वज के भी पूर्वज रहे हों। 
और चलते चलते एक बात मन को कचोट जाती है की दिल्ली और मुंबई जैसे शहरों के फूटपथों पर जो लोग रात को सोते हैं दिन मे भी उनका समान वहीं रहता और वो कहीं अपना पेट पाल रहे होते हैं आखिर उनका स्थायी पता क्या होता होगा,पता नहीं किस पल कोई गाड़ी उन्हे कुचल जाए और उनके ज़िंदगी की आखिरी सांस हो क्यूंकी शराब के नशे मे धुत भाई लोगों के लिए तो ये कीड़े मकोड़े ही हैं अपनी जमात मे ही क्या वो अपना पता ऐसे बताते  होंगे की फलां जगह की फलां सड़क वाले फूटपाथ पर। मगर उस फूटपाथ  पर तो कोई कमरा नंबर या की बेड नंबर नहीं होता है उनके ही जमात के लोग उनसे कैसे मिलते होंगे । इनके लिए बनने वाले रैन बसेरे  भी बस कुछ समय बाद ही नष्ट हो जाते हैं । बंजारा और बेड़िया काही जाने वाली जाती के लोग जो जिंदगीभर घूम घूम कर ही अपना पेट पालते  हैं उनका स्थायी पता क्या होगा । 

खैर हम इस बहस मे कितना भी उलझ लें स्थायी पते का स्थायी हल समझ नहीं आता है, हम जिसे अपना घर समझते है वहाँ कल को कोई और होता है जिस घर को हमने बचपन मे ही छोड़ दिया वहाँ दुबारा लौट नहीं पाते  जाते भी हैं तो अपने ही घर पे कोई पहचानने वाला नहीं होता । 
अंततः मिथिलेश जी के ही कविता की अंतिम पंक्तियों से अपनी बात समाप्त करता हूँ की .....
     बच्चे से पुलिस उसका पता पूछती है 
   बच्चा तो अपनी माँ के गोद मे छुप जाता है 
वही उसका स्थायी और वर्तमान पता  है 

Wednesday 4 June 2014

कांव कांव

                कांव कांव
अभी कुछ दिनो पहले राजस्थान के उदयपुर मे रहने वाले मित्र भंवर के गाँव जाना हुआ और वहाँ एक ऐसा वाकया हुआ जिसे चाह कर भी  मै नहीं भुला सकता और शायद आपके लिए भी यह घटना अविस्मरनीय बन जाए । हम सब घर के दरवाजे पर बैठे हुये थे की इतने मे कौए का एक जोड़ा आकार कांव कांव करने लगा,काफी देर बाद जब हम सब का ध्यान उनकी तरफ गया तो पास मे बैठे गाँव के एक बुजुर्ग ने बताया की मादा कौआ नर कौए से कह रहा है की उसे बहुत ज़ोरों की प्यास लगी है और नर कौआ कह रहा है की इंतज़ार करो अभी कोई इधर आएगा और पास रखे पत्थर से लगकर उसके हाथ से पानी  गिर जाएगा और तब तुम जाकर पी लेना यह बात सुनकर वहाँ उपस्थित सभी लोग हंस पड़े और उनका मज़ाक उड़ाया और मुझे भी इस बात मे कोई सच्चाई नहीं लगी ,लेकिन थोड़ी देर बाद देखते हैं की पड़ोस से एक लड़की पानी  लेकर निकली और वहाँ पड़े पत्थर से टकरा गयी और उसके हाथ का पानी गिर गया ,मादा कौए ने जाकर अपनी प्यास बुझाई । हम सब लोग आश्चर्यचकित थे और वह बुजुर्ग सामान्य  भाव से ही बैठे रहे । उन्हे किसी ज्योतिष विद्या का ज्ञान नहीं था और ना ही   वह कोई भाषाविद  उन्होने पशु पक्षियों की भाषा पर कोई कोई शोध भी नहीं किया है । हमारे मित्र ने उनसे बहुत गुजारिश की की वह बताएं की  उन्हे कैसे यह पता चला इसका सूत्र क्या है ,हमारी बहुत कोशिशों के बावजूद वह बुजुर्ग चाह कर भी कुछ नहीं बता सके या यूं कह लें की हम समझ नहीं सके,क्यूंकी शायद उस कौए की भाषा समझने के लिए जिस संवेदना की जरूरत है वह इस यांत्रिकता के दौर मे हममे मरती जा रही है हम एक रोबोट बनते जा रहे हैं जो कुछ निश्चित निर्देशो  की भाषा ही समझता है  इसके अलावा आप चिल्लाकर मर जाएँ वह नहीं समझेगा आपको।
भाषा वैज्ञानिकों की पशु पक्षियों की बोलचाल की भाषा को लेकर तरह तरह  की मान्यताएं हैं ,कुछ का मानना है की सम्पूर्ण विश्व मे पक्षियों की भाषा एक ही होती है ,कुछ कहते हैं यह अपने हाव भाव द्वारा एक दूसरे को समझते हैं। बहरहाल भाषा वैज्ञानिकों की इस बहस मे मै नहीं पड़ना चाहता जहां मुंडे मुंडे मतीरभीन्ना की स्थिति है मेरे लिए तो यह सब एक अजूबा जैसा ही था शायद आप इसे अंधविशास भी समझ लें । मेरे मन मे यह प्रश्न बार बार कौंध रहा है की एक कुत्ता एक बकरी से कैसे बात करता होगा एक भालू एक शेर से कैसे बात करता होगा। दादी माँ की सुनाई उन तमाम कहानियों पर अब हजारों सवाल करने का मन करता है जिनहे बचपन मे मै सहजता से स्वीकार कर लेता था ,अब अगर वो मिलें तो उनसे इस प्रश्न का जवाब चाहूँगा कैसे एक बंदर के चिड़िया का घोसला उजाड़ने पर चिड़िया ने बंदर से बात की होगी ,जंगल की सभाओं मे कैसे सब पशु पक्षी आपस मे बात करके शेर से अपनी समस्याएँ कहते रहे होंगे ,उनके संपर्क भाषा उनकी बोलचाल की भाषा क्या रही होगी ,जातक कहानियों मे तो अथाह सागर है इस तरह की बातों का । दादी कौए के मुंडेर पर बैठ कर कांव कांव कर देने से कैसे समझ जाती थी की कोई अतिथि आने वाला है , कबूतर की गुटरगूँ के कुछ देर बाद ही डाकिया परदेश से पिताजी की चिट्ठी ला  देता था अब जब की इस शहर की चकाचौंध मे दिन रात का पता ही नहीं चलता खुद से ही बात किए वक्त गुजर जाता है तो ये यादें सुखद आश्चर्य दे जाती हैं , की हमारी वर्तमान पीढ़ी कैसे पशुपक्षियों से कटती जा रही ,और पिंजरे मे बंद तोता ,सर्कस के बंदर भालू,जंजीरों मे बंधा कुत्ता तो हमारी गुलामी की भाषा ही बोलते हैं सच तो यह है की हम उन्हे समझने की संवेदना ही खोते  जा रहे हैं कोयल मोर पपीहा अब सपनों मे भी नहीं बोलते। पता नहीं ये हमसे नाराज़ होकर लगता है किसी और दुनिया मे चले जा रहे हैं। भाषा विज्ञान की बहस से निकलकर हमे इनकी संवेदनाओं से जुड़ना पड़ेगा नहीं तो यह शोरगुल से भरी दुनिया हमे एक दिन पागल ही बना देगी जहां शायद हमारी कोई जुबान ही न बचे। उदयपुर के उस वाकये के बाद कौवे की कांव कांव सुनते ही अब बरबस उनकी तरफ खींच जाता हूँ और वह बुजुर्ग मेरी यादों मे बस जाते हैं। और यही लगता है की बस एक भाषा प्यार की ही है जिसे पशु पक्षी भी हममे महसूस करके एक सकारात्मक ऊर्जा का अनुभव करते हैं और वह हमारे पास आते हैं इसी कारण वह हमारी गतिविधियों  का अनुमान भी कर लेते हैं ,और जब इंसान इंसान से ही अपने निहित स्वार्थों के कारण नफरत करेगा तो पशु पक्षी तो बहुत दूर चले जाएंगे हमसे ।
नाम –प्रभान्सु ओझा

ब्लॉग का लिंक .... prabhanshuojhakukur.blogspot.in 

Friday 30 May 2014

प्राण हैं पेड़

               प्राण हैं पेड़
आज पर्यावरण दिवस है ,सर्वप्रथम प्रकृति को लेकर  आप सबसे ढेर सारी उम्मीदें क्यूंकी यह समय अब शुभकामनाओं का  नहीं रहा बल्कि गहराते पर्यावरण संकट के बीच चिंता का हो गया है । बात आज से छह दिनों पहले की है 31 मई को शाम के करीब 6 बजे देश की राजधानी दिल्ली मे भयंकर तूफान के बीच ढेर सारे पेड़ गिरे,बिजली के खंभे गिरे ,कमजोर घर गिर गए ,दस  के आसपास लोगों की मृत्यु हुयी और पूरा माहौल एक अजीब किस्म के अंधेरे मे तब्दील हो गया जहां बेमौसम बारिश है ,बेतहाशा गरम होती धरती है और हर रोज प्रदूषित होता पानी है । थोड़ी देर बाद फिर से धुआँ फेंकती गाडियाँ रफ्तार भरती  हैं ,जहर उगलते कारखाने फिर से चालू हो जाते हैं और विश्व मे वायु प्रदूषण की राजधानी बन चुकी दिल्ली के बाशिंदे फिर से अपने कम धंधों मे लग जाते हैं।

यहाँ  ये सभी घटनाएँ सामान्य नहीं हैं ,ये दरअसल बेबस प्रकृति की पुकार है की मानव सचेत हो जाए। जो पेड़ पौधे हमारी प्राणरक्षक ऑक्सीज़न के श्रोत हैं आज हम उन पर कुल्हाड़ियाँ चलाने मे जरा भी संकोच नहीं कर रहे हैं ,वन जंगल बेतहासा तरीके से कटे जा रहे हैं ,चाहे शहर हों या गाँव हर जगह इन्सानों मे एक अजीब से लालच ने घर कर लिया है और वह अपने स्वार्थों के नशे मे अंधा हो गया है । हम से ने एक कहानी सुनी है की एक व्यक्ति को सोने का अंडा देने वाली मुर्गी मिल जाती है और हर रोज वह एक सोने का अंडा देती है और उस व्यक्ति का जीवन खुशहाल बन जाता है ,एक दिन उस पर लालच का भूत सवार होता है और वह सोचता है की क्यूँ न इस मुर्गी के पेट को चीरकर अंडे एक ही दिन मे प्राप्त कर लिए जाएँ ,वह मुर्गी पर चाकू चलता है और मुर्गी मर जाती है और वह हाय हाय करता पछताता रह जाता है । क्या वही गलती पेड़ पौधों को काटकर मानव नहीं कर रहा है ,जहां हरा  भरा समाज अचानक से रेगिस्तान बनता  जा रहा है । बढ़ते तापमान ,सूनामी,बाढ़ ,तूफान के पीछे एक सबसे बड़ा कारण पेड़ों का काटा जाना भी है ,जंगल के जंगल काटकर बसाये जाने वाले उद्योग धंधे हैं । हम सब एक कंक्रीट की दुनिया तैयार कर रहे हैं ,जहां हरियाली बस किताबों और कृतिम रंगों मे सिमट कर रह गयी है । बचपन से यह कहावत सुनता आ रहा हूँ की सावन हरे न भादव सूखे , भादव तो सूखा ही था अब सावन भी सूख गया है । एक कहावत थी की सावन के अंधे को सब हरा ही हरा दिखाई देता है अब या बदल चुकी है अब है की स्वार्थ के अंधे को सिर्फ भौतिक विकास ही विकास दिखाई दे रहा है जहां पेड़ पौधों के लिए न कोई संवेदना  है और न ही प्यार ,पेड़ पौधों मे भी एक दिल धड़कता है वह भी हमसे कुछ कहना चाहते हैं लेकिन अब हमने अपने कान  बंद कर लिए हैं । याद आता है वह समय जब पेड़ पौधों की प्रकृति के माफियाओं से  रक्षा के लिए एक गाँव  के अशिक्षित ग्रामीण लोग पेड़ पौधों से लिपट गए थे जिसे इतिहास मे हम चिपको आंदोलन के नाम से जानते हैं और आज का पढ़ा लिखा इंसान खुद इन निःस्वार्थी पेड़ पौधों को अपनी भौतिकतावादी लालसाओं की पूर्ति के लिए उजाड़ दे रहा है ,उसने इन पर अपना असीमित अधिकार तय कर लिया है वह इन्हे अपनी विरासत मान बैठा है । विज्ञान तकनीकी और यांत्रिकता से लैस होकर छद्म आधुनिकता का दंभ भरने वाले इंसान को यह समान्य सी बात नहीं पता की शुद्ध हवा कभी पैसों से नहीं मिलेगी और बनावटी कृतिम पार्कों के बीच टहलकर वह स्वस्थ्य नहीं रह सकेगा ये  दमघोंटूँ संयंत्र उसे मरीज ही बना रहे हैं। हमे यह समझना होगा की जिस तरह से हम  100 दिनों का खाना एक दिन मे नहीं खा सकते उसी तरह एक इलाका निर्जन और एक इलाके मे लगातार 100 वृक्ष लगाकर पर्यावरण का विकास नहीं कर सकते हैं ,पर्यावरण के सौंदर्यीकरण से भला नहीं होने वाला है ,समय आ गया है की हम सचेत हो जाएँ और अधिक से अधिक पेड़ पौधे लगाए जंगलों की रक्षा करें । ,मेरे कहने का आशय यह कतई नहीं है की हम फिर से गुफाओं मे वापस चले जाएँ लेकिन महलों मे जाने की लालसा मे पागल भी ना हो जाएँ वनों की अंधाधुंध कटाई करके अपने जीवन की रीढ़ ही काट दें और फिर सब कुछ नष्ट हो जाए माया मिले ना राम । एक पौधे को वृक्ष बनने मे सालों साल लग जाते हैं और काटने मे बस कुछ पल इसलिए कुल्हाड़ी उठाने से पहले लाख बार सोचें की कहीं यह हम अपने जीवन पर ही तो नहीं चलाने जा रहे ।आइये आज ही संकल्प लें एक पेड़ लगाने का और मानव मात्र को पर्यावरण के प्रति जागरूक करने का ,इस आंदोलन को घर घर तक पहुँचने का । prabhanshuojhakukur.blogspot.in email-prabhansukmc@gmail.com

Saturday 17 May 2014

ये कहाँ आ गए हम

               ये कहाँ आ गए हम
अभी कुछ दिनों पहले दिल्ली के एक मित्र से बात हो रही थी जो की  काफी  संभ्रांत परिवार से हैं उनका ऐसा मानना था की अगर पानी  का संकट बढ़ रहा है तो इससे उन्हे क्या दिक्कत होने वाली है बोतल बंद शुद्ध  पानी  तो रहेगा ही l शायद उनकी यह बात सुनकर आपको आश्चर्य हो रहा हो मुझे भी उस समय हुआ लेकिन बाद मे मैंने देखा की उनके वर्ग से आने वाले हर व्यक्ति का  लगभग यही मानना है l शायद उन्हे यह बात नहीं पता की धरती के गर्भ मे ही अगर जल नहीं बचा तो बोतल बंद पानी  कहाँ से आएगा l जलसंरक्क्षन के प्रति हम इतने लापरवाह हैं की बारिश का पानी नालियों मे जाकर बर्बाद हो जाता है l   पर्यावरण के प्रति बेरुखी हमारे समाज मे दिन प्रतिदिन बेतहाशा गति से बढ़ती जा रही है विकास के पूंजीवादी मॉडल मे हम इतना भ्रमित हो गए हैं की हम विकास के असली मतलब को हम भूल गए हैं जो सिर्फ भोग विलास तक  सिमटा है  मानव सिर्फ अपने अधिकारों की बात कर रहा  है जब की अगर हम अगर प्रकृति की बात करें तो उसकी मूलभावना ही नितांत कल्याण कारी है l बचपन से ही यह कहावत सुनता आ रहा हूँ की  वृक्ष कबहुँ नहीं फल भखई नदी न संचय नीर ,परमारथ के कारणे साधुन धरा शरीर l यह भी कहा जाता है की जब पेड़ों मे फल आता है तो वह विनम्रतापूर्वक झुक जाते हैं परंतु इंसान को जरा सा बुद्धि आयी तो वह अकड़ गया वह जंगलों पर नदियों पर पशु पक्षियों पर तथा समस्त प्राकृतिक  संसाधनों पर अपना असीमित अधिकार तय कर लिया l बेतहासा तरीके से उन जगलों को काटा गया जिनके बारे मे यह कहा जाता है की एक वृक्ष दस पुत्र समान l पुत्र प्राप्ति के लिए तो इंसान न जाने क्या क्या जतन कर रहा है यहाँ तक गर्भ मे ही लड़कियों को मार देता है l क्या हम पैसों के बल पर शुद्ध हवा खरीद सकते हैं ? क्या धुआं उगलते कारखानों मे हम चैन की सांस ले पाते हैं l स्वास्थ्य जीवन और स्वस्थ्य चिंतन के लिए जरूरी है की स्वस्थ्य पर्यावरण हो जिसका पारिस्थितिकी तंत्र संतुलित हो जहां पशु पक्षी अपने प्रकृतिक आवास मे चैन से घूम सकें l शहरों मे तो पर्यावरण की हालत चिंताजनक है ही गाँव भी अब अछूते नहीं बचे हैं ,अब प्लास्टिक की तुलसी पूजी जा रही है हैं और मिट्टी की मूरतें काँच और प्लास्टिक मे तब्दील हो रही हैं l पहले गांवों मे भोज के समय महुआ के पत्तों मे खाना   परोसा जाता था और मिट्टी के कुल्हाड़ों मे पानी सब प्रेम भाव से खाते थे परंतु आज स्थिति बेहद बदल सी गयी है अब इससे उनकी बेज्जती होती है गिलास से लेकर थाली तक भोज मे सब कुछ प्लास्टिकमय हो गया है l पीपल और बरगद बहुत मुश्किल से मिलते हैं उस हरियाली पर बाजार की नजर लग गयी है l हर संतुलित गाँव मे एक असंतुलित शहर बस गया है और स्थिति दिन ब दिन डरावनी होती जा रही हर गाँव के चारों ओर सुंदर बाग बगीचों की जगह ईंट बनाने की चिमनियाँ हैं जो किसानों की उपजाऊ मिट्टी को लील जा रहा हैं और खेत के नाम पर गड्ढे बच रहे हैं l चाहे शहर हों या गाँव हर जगह एक छद्म आधुनिकता का दौर चल रहा है हरदम मोबाइल कम्प्युटर और तकनीकी से चिपके रहने वाले युवावों  को यह नहीं पता की इनका  रेडिएसन उनके दिल दिमाग आँख कान सबकी क्षमता को कम कर रहा है l

वायु प्रदूषण ध्वनि प्रदूषण सब दिन ब दिन बढ़ते जा रहे हैं जिस हिमालय पर हम गर्व करते नहीं थकते वह पिघल रहा है तमाम ग्लेसियर पिघल रहे हैं ,अब वक्त आ गया है की हम सचेत हो जाएँ नहीं तो धार्मिक आधार पर सभ्यता के नष्ट होना भले ही मिथक हो परंतु पर्यावरण की ऐसे ही क्षति होती रही तो दुनिया बहुत जल्द नष्ट हो जाएगी l   प्रभान्सु ओझा (prabhansukmc@gmail.com) blog.. PRABHANSHUOJHAKUKUR.BLOGSPOT.IN